Dil-E-Jazbaat
दिल तो छल्ली हजार बार हुआ कास आशिकी में हुआ होता दिल टूट जाता इश्क में अगर तो समझता पागल था में दिल मगर तोड़ दिया बेहता हुआ लहू ने जो अपना ही था मुझे लगा हम पेड़ के साखाए हैं तूफानों में टूट कर अलग होगया ये सोचा की कमजोर था टूटना ही था समय ने सूखा हुआ लकड़ी बना दिया फिर आपनो ने ही उसमें आग लगा दिया थोड़ा दुख तो होगा राख बनते देख कर लेकिन रोना मत मेहगा है तेरे आशु भी खर्च होजाएंगे सूखी टेहनी था झड़ना ही था हम जल्दी ही सही हरे थे पर हारा नहीं था धूप में जलकर सुख गया सोचा मौसम बदलेंगे हरियाली आएगी फिर से खुशहाली आएगी भूल गया कि मैं टूट चुका हूं जमीन पे सुख चुका हूं तप के सोना नहीं बन पाए कोयला बन गए फिर भी किसी के घर भोजन बना किसी के घर तपन फिर जब राख हुआ तो आपके हाथ गंदे होगए और हम आपके लिए कूड़े होगए लेखक- अरविंद कुमार कर्ण